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खिड़की / मुकुल दाहाल / सुमन पोखरेल

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लाख कोशिश करने पर भी मेरे कमरे की खिड़की बंद नहीं होती।
लगता है कभी-कभी तो बंद भी हो जाए यह खिड़की,
मगर खुला रहने पर भी दिल पर कुछ सुकून-सा होता रहता है।

हर लम्हा हवाओं की तरह
उड़कर आने वाली यादों के झोंकों से खुलने वाली यह खिड़की
हरदम खुलती ही रहती है।

बंद कर लूँ -
खेतों पर हवाओं के संग नाचते हुए घासों के छोटे-छोटे हाथ आकर खोल देते हैं।
बंद कर लूँ -
गुनगुनाते हुए बह रहे झरनों के तरल हाथ खींचकर खुला छोड़ देते हैं।
झरनों के पानी से भिगे हुए और किनारे के सूखे छोटे-छोटे पत्थर
खिड़की से अंदर ही आकर
जमीन पर बिखर जाते हैं।

सभी काम छोड़कर खेलना शुरू करता हूँ मैं उनसे।

बंद कर लूँ -
खेत के उस पार खड़ा आम का पेड़ भी खोल देता है खिड़की
हवाएँ जब झकझोर कर हिलाती हैं उसे,
पत्ते मेरे कमरे के कोने-कोने तक बिखर जाते हैं।

इन पत्तों पर मेरा बचपन की खुशबू है।
सभी काम छोड़कर मैं पत्तों से खेलना शुरू करता हूँ।

खुली हुई खिड़की से मैं गांव की मील के पिछवाड़े
जमीन तक आकर खत्म होने वाले आसमान को देखता हूँ।

मील की टुकटुक करती आवाज
कहीं बज रहे ढोल और दमाहा के साथ घुलकर आ रही है
और दादी माँ की आवाज को जीवित कर रही है।
घर के पिछवाड़े पर उनके सुखाए हुए कपड़े
हवा में फहराते जा रहे हैं।

खिड़की बंद कर लूँ -
शाम को घर लौटती हुई गायों के पैरों से
उड़कर आनी वाली धूल के सूक्ष्म हाथ खोल देते हैं उसे।

बंद कर लूँ -
वक्त की उस गांव से कोई आ पहुँचता है एकाएक
और खोल देता है खिड़की।

जितना भी कोशिश कर लूँ,
यह खिड़की बंद नहीं होती।