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चिंगारी / दीपक शम्चू / सुमन पोखरेल

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खिलती हुई जवानी को राख के फूलों से ढककर
सूखे हुए चूल्हे के अंदर चुपचाप छिपी बैठी है
आग की चिंगारी।

उस आग के शांत सागर में
बुझाने से कभी न बुझने वाली प्यास हो सकती है,
सपनों को पूरा कर लेने से भी कभी न खत्म होने वाली ख्वाहिशें हो सकती हैं।

शायद, सभी को होती होगी
यौवन के साथ खेलकर आग की तरह जलने की ख्वाहिश।

रहने देना, छुपाई हुई चिंगारी हो सकती है, उसे वैसी ही रहने देना,
छुए बिना ही आनंद लेकर खुश रहना,
दूर रहकर देखने पर भी नजरअंदाज करके खुद ही में खो जाना।

एक कोशिश भी की चिंगारी को छूने कि तो,
बिलबिलाकर एकाग्रता बिखरते हुए छितर सकती है।
गलती से छू लिया अगर एक सांस ही से भी,
तो जंगली आग की तरह हर तरफ फैल सकती है ।

जिस तरह छिपी हुई है आग की चिंगारी,
वैसे ही शांत होकर बिना हिले ही रहना ।
सांस को रोक रोककर, होशियारी से लेना,
रगों में बेकाबू दौड़ रहे खून को
पर्वाह किए बिना वैसे ही छोड़ देना ।

बल्कि,
धागा बनाकर सपनों को ख्वाहिश के क्रूस से ओढनी बुनते रहना,
क्षितिज के सहारे लेटकर तारों की राह तकते रहना।

पूरी तरह निगलकर अंधेरे को
किसी दिन आ पहुंचेगी
तुम्हारे सामने वह आग की चिंगारी।

०००