भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं लौट आईं थी / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:10, 13 सितम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रंजना जायसवाल |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं लौट आई थी
तुम्हारे पास से
गुमसुम, गुमनाम,गुमशुदा
कुछ छूट गया था शायद
वर्षों तक ढूँढती रही
गलियों और चौराहों पर
आज अचानक वर्षों बाद
जो तुम्हें देखा
तो पाया
जो छूटा था
वह तो था तुम्हारे पास
सुरक्षित, सही-सलामत
जैसे आसमान के आँचल में
सिमटे असँख्य तारें
और अमावस की गिरफ्त से छूटा हुआ चाँद
सही समझा तुमने
मैं चली आई थी तुम्हारे पास से
छोड़कर अपनी सारी पूनम की रातें
और आज भी तलाश करती हैं कहीं
मेरी वह दो जोड़ी आँखें
पूनम की चंदा का प्रतिबिंब
नदिया की कम्पित धारा में
आज भी हिलता हुआ
मेरा आधा-अधूरा अस्तित्व