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पूस की एक स्याह रात / रंजना जायसवाल

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पूस की स्याह रात में
टपकता हुआ आसमान
टिक जाता है
ठंड से ठिठुरती
अलसाई मखमली दूब पर
लरजता, इठलाता,
दम्भ से भर जाता अपनी क़िस्मत पर
नहीं जानता अपना भविष्य
कभी-कभी रात के अंधेरे
उतने भयावह नहीं होते
जितने कि दिन के उजले उजास
हर रोशनी ज़िन्दगी भर दे
यह ज़रूरी तो नहीं
वह यह जानता नहीं
कि रौशनी की एक किरण
मिटा देगी उसके अस्तित्व को
जैसे जीवनदायिनी नदिया भी
डुबो देती हैं किनारों को