भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब क्या होगा / अष्‍टभुजा शुक्‍ल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:11, 16 सितम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अष्‍टभुजा शुक्‍ |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसी गाँव पर हमें नाज़
वनराज सरीखा
इसी गाँव में हम पर
थू थू करनेवाले
उस टोले में धारासार
बरसती लक्ष्मी
इस टोले में पड़े हुए
रोटी के लाले

इसी हवा में अपनी भी
दो चार साँस है
इसी तवे पर अपनी भी
दो एक चपाती
इस झलकी में अपने
नाखूनों का सत है
इन सफ़ेदपोशों में
कुछ शातिर अपघाती

इसी समय में समय
एक भारी विमर्श है
इसी देश में देश
एक लम्बा आलाप
इन क्षोभों में अपने कुछ
एतराज़ दर्ज़ हैं
इसी कीर्तिगाथा में कुछ अपने अपलाप

सत्याग्रह में इसी
चन्द पाल्थियाँ हमारी
असहयोग में अपने भी
ये मूक नयन
वैचारिक हिंसा पर
उतरे कोविद जन
क्या होगा कैसे अब
रे रे गांधी मन !