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भय / प्राणेश कुमार

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कितनी दूर तक
समाया है डर !

मित्र की मित्रता
अंतरंग की अंतरंगता
मासूमों की मासूमियत भी
डरा जाती है अंदर से।

कोई खुलता नहीं यहाँ
किसी के सामने
निश्छल हँसी के लिए तरसती आँखों में
खौफ का साया रहता है हमेशा
षड्यन्त्रों से भरे समाज में
हर आदमी डरा - सहमा।

डर - एक हथियार
डर से पूरी की पूरी आबादी
मृत हो जाती है
जैसे कोई तेज आँधी
गिरा देती है वृक्षों को
और मज़बूत दीवारों को भी
डर भी गिराता है
जीवन्तता।

अदृश्य डर से बाहर
सूरज की रोशनी
उन्मुक्त हँसी
और भीनी ख़ुशबू है।

पड़ोसियों की चालबाजियाँ
हत्यारों के खंज़र
आतताइयों की गोलियाँ
महाजनों के खाते - पट्टे
मकान की मील्कियत
वोट की ताकत
और आदमी की खुद्दारी
सब-के-सब डराते हैं आदमी को
अदृश्य घेरे में घिरे आदमी को।