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बिच्छू की रात्रि / निस्सीम इज़ेकील / श्रीविलास सिंह

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मुझे स्मरण है उस रात्रि का
जब डंक मारा था बिच्छू ने मेरी माँ को ।
दस घण्टों की निरन्तर बारिश ने
मजबूर कर दिया था उसे रेंग जाने को
चावल की बोरी के नीचे ।

अपना विष छोड़ते हुए —
पैशाचिक पूँछ का झटका अन्धेरे कमरे में —
उसने फिर ख़तरा मोल लिया बारिश का ।

मक्खियों के झुण्ड की भाँति किसान आए
सैकड़ों बार भुनभुनाया नाम अल्लाह का
दुष्ट को पंगु कर देने हेतु ।

मोमबत्तियों और लालटेनों संग
विशाल बिच्छुओ जैसी परछाइयाँ रचते
मिट्टी की दीवारों पर
उन्होंने खोजा उसे — पर वह नहीं मिला।
उन्होंने चटखाई अपनी जीभ ।
जैसे चलेगा बिच्छू
वैसे ही चलेगा ज़हर माँ के रक्त में,
उन्होंने कहा ।

हो सकता है वह बैठे स्थिर, उन्होंने कहा,
हो सकता है तुम्हारे पूर्व जन्म के पाप
जल जाएँ आज की रात्रि, उन्होंने कहा,
हो सकता है तुम्हारा कष्ट कम कर दे
तुम्हारे अगले जन्म के दुर्भाग्य, उन्होंने कहा ।
हो सकता है सारे गुनाहों का योग
सन्तुलित हो जाए
इस अवास्तविक दुनिया में

शुभ कर्मों के योग से
कम हो जाए तुम्हारी पीड़ा ।
हो सकता है विष पवित्र कर दे तुम्हारी देह को

कामना से, और
तुम्हारी आत्मा को महत्वाकाँक्षा से,
उन्होंने कहा, और वे बैठ गए फ़र्श पर
मेरी माँ के चारों ओर,
समझ जाने की शान्ति थी हर चेहरे पर ।
और मोमबत्तियाँ, और लालटेनें, और पड़ोसी
और कीट, और अन्तहीन बरसात ।
मेरी माँ ऐंठती रही बारम्बार चटाई पर
पीड़ा से कराहती ।
मेरे पिता, संशयवादी, तर्कवादी
आज़माते हुए हर शाप और आशीष,
पाउडर, मिश्रण, जड़ी बूटी और यौगिक।
उन्होंने थोड़ी सी पैराफ़िन भी डाली
उस अँगूठे पर जहाँ लगा था डंक
और रख दी जलती हुई तीली उस पर ।
मैं देखता रहा लपटों को जलाते हुए मेरी माँ को ।
मैंने देखा पुजारी को करते हुए अपने कर्मकाण्ड
कम करने को विष का असर अपने मंत्रपाठ द्वारा ।
बीस घण्टे बाद
ख़त्म हो गया इसका असर ।

मेरी माँ ने, बस, इतना कहा
अल्लाह का शुक्रिया कि बिच्छू ने डंक मारा मुझे
और बख़्श दिया मेरे बच्चों को ।