घन का गिरि, शिखर स्थित रवि
यह सरि वेला !
वन - उपवन सुरभि सजग
मलय वलय बेला !
कनक मेखला - मण्डित
सहस जलद शिखर असित
तरु तरु पर किरन नमित
रंजित खग मेला ?
क्षितिज लग्न नव जलधर
हंस के उगे ज्यों पर
घन की सित लहर लहर
सैकत उर्मि — रेला !
कुहर गन्ध अन्ध पवन
वाष्प धुन्ध उर दर्पण
ईख - हास पर सुबरण
किरन ने उँड़ेला !
शुभ, तब मुखड़ा सुन्दर
दृग में जाता ज्यों तर
मन्द - मन्द त्यों सरि पर
तिरता वह भेला !
खड़ा - खड़ा सरि - तट पर
रोता महुआ झर - झर
पी रहा नयन में भर
मैं तुम्हें अकेला !
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जनवरी 1947