नव वर्ष की पावन बेला में
कविता तुमसे उपहार मांगती हूँ मैं
शब्दों के ताने बाने से
भावों का शृंगार मांगती हूँ मैं!!!
विचलित है मन, गहराता तम
देखो पीड़ित, शोषित जन जन
हँस रहा सिर्फ़ कलयुग का प्रण
लुट गया हा! संतों का धन
देवों की भूमि विलाप रही
मैं बनी हा! दैत्यों का वन
कविता फिर आज तुम्हें जगना होगा
बन रक्त सुधा बहना होगा
इस दिवा-निशा के क्रंदन से, निस्तार मांगती हूँ मैं!!!
चीरे जो अंतर-घन को, ऐसी हुंकार मांगती हूँ मैं!!!
कुछ गुण गौरव जो पाले थे
वर्षों की साधना से डाले थे
तज दिए हमने संस्कार सभी
भक्ति के पावन उपहार सभी
अब भ्रमित यूँ हीं बस फिरतें हैं
नित और पतित हो गिरते हैं
भूलों को राह दिखाओ तुम
बस वापस उन्हें बुलाओ तुम
सींचे जो शुष्क हृदय को, विशुद्ध वह प्यार मांगती हूँ मैं!!!।
लौटें सब सत की ओर, ऐसी पुकार मांगती हूँ मैं !!!
दुःख से बोझिल नयनों को देखो
हास्य विमुख अधरों को देखो
चीत्कार दबी जिनके अंतर में
मन के उन निराश सदनों को देखो
आ जाओ कुछ हरकत तो हो
हँसने रोने का कुछ मतलब तो हो
भावों के निर्जन वन में बसंत बहार बनो तुम
जीवन की तप्त रेत पर, सावन की बौछार बनो तुम
जो भस्म करे सब जड़ता को, वह ज्वार मांगती हूँ मैं!!!
गम के मेले में तुमसे, किलकारी का त्यौहार मांगती हूँ मैं!!
नव वर्ष की पावन बेला में
कविता तुमसे उपहार मांगती हूँ मैं
शब्दों के ताने बने से
भावों का शृंगार मांगती हूँ मैं!!!।