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भरिछाक अछार देबै हे भगवती / दीपा मिश्रा

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चैतक एहि दहकैत माहमे
जखैन प्रेम हृदयकेँ सर्वाधिक मथैये
हम बीछैत रहैत छी दिन भरि बैसिके अहाँक स्मृतिक कौड़ी
गिनिकेँ रखैत छी माएक देल पिठार सेनुरसँ ढोरल ललका तामामे
कहने छलीह जे एकरा भरने रहमे
कहिओ खाली नै हुए देबही
ओ बात कहाँ कहिओ बिसरायल
ई अलग बात जे सब ओहिमे धन संचित करैये आ हम करैत रहलौं अहाँक नेह ...

मुदा प्रेमक चित्त कहाँ कहिओ थिर रहैत छै
बिना बातोक ओ नब अर्थ गढय लगैये आ देखैत देखैत बिला जाइए
पछबारिक बोनमे
'हे रामा!' गबैत चैतावर
पलाशक ऊँच ठाड़ि पर बैसिके हमरा दिस तकैये
आ हम रहि रहिके आंखि चोरा लैत छी
कोना कहू जे प्रेम भरि देहकेँ छील देने अछि...

सुनने रही कमला कातमे
एकटा साधु रहैत छथि
जे दैत छथिन लोक सबकेँ एकटा ताग
जकरा ओतहि निकटक वटसँ बन्हलासँ प्रेम घुरि अबैत रहै
हमहूँ तकै लेल गेलौं एक दिन ओहि महात्माकेँ
मुदा ओतय त' कमलाक धार सेहो सुखाएल छल
महात्माक कतौ अता पता नै
आह! नदीक व्यथा अपना सन बुझाएल,अपन दुःख बिसरि हम ओकर माटिकेँ माथसँ लगा लेलौं...

स्त्री जीवनक सबसँ पैघ दोष थिक मोह
ई ओकरासँ जे ने करबा लिए
बाट बोन धरि चलैत चलैत ओकर अपन इच्छा कौन खोहमे सोन्हिया जाइत छै
ओ कहाँ बुझि पबैये अपनो
जहिया बोध होइत छैक तहिया धरि
घुन सब किछु खा गेल रहैत छै आ
कनेको छुबिते भरभराकेर ढहि जाइत छै
बरखक बनाओल सहेजल सब किछु जेना
भीतरह धाहिमे पिघैल जाइत छै, ओह एतबी टाक जीवनमे
कतेक रहस्य नुकौने ओ
अपनोसँ अंचिन्हार रहि जाइए...

बेलीकेँ झुलसैत गाछकेँ पानि दैत दू ठोप अपनो माथ पर छीट लैत छी
कोना कहल जाए ककरो जे
चैतक निनिया बैरिनिया किएक होइए
आ फेर मोन पड़ैये वएह नदी जकर नोरो सुखाएल छल
जे नै हँसि सकैये आ नै कानि सकैये
प्रेमसँ बेकल भेल मोन
तपैत चैतक रौद दिस तकैत
मात्र करैये
थान परहक देवीसँ गोहार जे एहिसाल भरिछाक अछार देबै हे भगवती!
एहिसाल भरिछाक अछार देबै!