न खुरों से जानवर समझ में आते थे
न छायाओं से पेड़
न कौलों से आदमी
एक दह-वह-शत भरा जीवन था
जिससे पार पाना था
अपनी मिट्टी को जगाना था--
पुरखों के कोठार से बीज निकाल कर
उम्मीद का बिरवा उगाना था
जाऊंगा
जाऊंगा करता रह गया
डरता रहा
डरता रहा, डरता रह गया