खड्ड / कुँवर दिनेश
और अब यहाँ यह खड्ड
मेरे गाँव की सीमा में
प्रवेश करती है
जाने कहाँ से
कितने गाँवों से
होती हुई
यह खड्ड
हमारे गाँव में आती है
और फिर चली जाती है
अन्य गाँवों की ओर...
हम।ने
गाँव की सीमाओं को छूती
खड्ड के इस भाग को
कई भागों में बाँट रखा है-
वह
ऊपर वाला भाग है
पीने का पानी लाने के लिए
लेकिन सिर्फ़ इनर कास्ट लोगों के लिए
और थोड़ा नीचे है
जगह आऊट कास्ट के लिए
और वहीं,
वहीं पास में
जगह है पशुओं के भी
पानी पीने की,
फिर आता है
खड्ड का वह हिस्सा
जहाँ गाँव के लोग,
विशेषकर युवा,
अक्सर गर्मियों में नहाते हैं,
ठण्डे-ठण्डे पानी की सिहरन का
आनन्द उठाते हैं;
उनके साथ ही
स्नान का आनन्द उठाते
दिखती हैं गाँव की भैंसें;
वहीं पास में
थोड़ा नीचे
शौच-निवृत्ति के लिए लोग जाते हैं;
फिर
उस छोर पर-
जहाँ हमारे गाँव कि सीमा
समाप्त होती दिखती है,
और सीमा आरम्भ होती है
दूसरे गाँव की-
वहीं
वहीं पर है
कुछ-कुछ दूरी पर
अन्तिम संसकार के निमित्त बने
जाति अनुसार घाट;
पर जब कभी यहाँ चिताएँ
जलती दीख पड़ती हैं तो-
अचम्भे की बात है कि-
उन सब से उठती लपटें
सभी एक ही रंग की होती हैं,
उन सब से उठता धुआँ
एक ही रंग का होता है,
एक ही रंग की होती है-
उन सब की राख,
और इन सब के साथ
एक ही रंग है
उस खड्ड के पानी का
जिसकी अजस्र धारा को हमने
कृत्रिम सीमाओं में
विभक्त कर रखा है।