नौ नवम्बर / अनामिका अनु
प्रेम की स्मृतियाँ
कहानी होती हैं
पर जब वे आँखों से टपकती हैं
तो छंद हो जाती हैं
कल पालयम जंक्शन पर
मेरी कार के पास
कहानियों से भरी एक बस आ रुकी
उससे एक-एक कर कई कविताएँ निकली थीं
उनमें से मुझे सबसे प्रिय थी
वह साँवली, सुघड़ और विचलित कविता
जिसकी सिर्फ आँखें बोल रही थी
तन शांत था
उसके जूड़े में कई छंद थें
जो उसके मुड़ने भर से
झर-झर कर ज़मीन पर गिर रहे थें
मानो हरसिंगार गिर रहे हों ब्रह्म मुहूर्त में
ठीक उसी वक़्त
बस स्टैंड के पीले छप्पर
को नजर ने चखा भर था
तुम याद आ गये
"क्यों?
मैं पीला कहाँ पहनता हूँ?"
बस इसलिए ही तो याद आ गये!
उस रंगीन चेक वाली सर्ट पहनी
लड़की को देखते ही तुम मन में
शहद सा घुलने लगी थी
"वह क्यों?
मैं तो कभी नहीं पहनती सात रंग?"
तुम पहनती हो न इंद्रधनुषी मुस्कान
जिसमें सात मंज़िली खुशियों के असंख्य
वर्गाकार द्वार खुले होते हैं
बिल्कुल चेक की तरह
और मेरी आँखें हर द्वार से भीतर झाँक
मंत्रमुग्ध हुआ करती हैं
आज सुग्गे खेल रहे थे
लटकी बेलों की सूखी रस्सी पर
स्मृतियों की सूखी लता पर तुम्हारी यादें के हरे सुग्गे
मैंने रिक्त आँगन में खड़े होकर भरी आँखों से देखा था
वह दृश्य
तुम्हारी मुस्कान की नाव पर जो क़िस्से थें
मैं उन्हें सुनना चाहती हूँ
ढाई आखर की छत पर दिन की लम्बी चादर को
बिछा कर
आओगे न?
तुम मेरे लिए पासवर्ड थे
आजकल न ईमेल खोल पाती हूँ
न फेसबुक
न बैंक अकाउंट
बस बंद आँखों से
पासवर्ड को याद करती हूँ
क्या वह महीना था?
नाम?
या फिर तारीख़!