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आगळ / नीरज दइया

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कीं कैवणो चावतो हो म्हैं।
कीं कैवणो चावतो हो थूं।

कीं कोनी कैयो म्हैं।
कीं कोनी कैयो थूं।

म्हैं सोच्यो- थूं कीं कैवैला....

कांई सोच्यो थूं?
म्हैं कियां जाणूं....?

है तो आ जूनी कथा
पण आगळ खोलै कुण....?