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मानक हैं उत्कोची / गरिमा सक्सेना

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पढ़े हुए अख़बारों को हम
बार-बार हैं पढ़ते

स्वप्नों में जीवन को
जीवन में स्वप्नों को खोजा
ईद नहीं आयी हिस्से में
रखा रोज़ ही रोज़ा

आशाओं के हिस्से में झूठी
परिभाषा गढ़ते

आरोहों के पथ आरक्षित
मानक हैं उत्कोची
जूते सिलने के बदले में
पैर काटते मोची

सिर के बल आख़िर कैसे हम
सोपानों पर चढ़ते

मुस्कानों का कंबल ओढ़ा
अधरों की ठिठुरन ने
पीड़ा की मेंहदी पायी है
जीवन भर दुल्हन ने

पीछे हटना चुना हमेशा
कैसे आगे बढ़ते