Last modified on 24 दिसम्बर 2024, at 21:45

चिल्लाये जंगल / गरिमा सक्सेना

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:45, 24 दिसम्बर 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गरिमा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह=क...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जीवन में क्या दुख ही दुख है
सुख को भी तो गाओ भाई

‘कंकरीट हम
तक बढ़ आये’
आज बहुत चिल्लाये जंगल

जंगल के ऊँचे पेड़ों में
थे हरियाली के ही मानक
जंगल ने देखा था कब यह
ऊँचाई का रूप भयानक

उसको डर है
कहीं पाँव तक
बढ़ कर आ जाए न मरुस्थल

शहरों के इस वहशीपन से
जंगल था अनभिज्ञ अभी तक
कँपा रही थी रूह-रूह को
क्रूर कुल्हाड़ी की ठक-ठक-ठक

सच सम्मुख
विद्रूप खड़ा है
कौन करेगा पर इसका हल

जंगल की चीख़ों में शामिल
कल मानव की चीख़ें होंगी
कितने दिन तक छल पाएगा
अपने अंतरमन को ढोंगी

क़ुदरत को बैरी कर
इक दिन
ख़ुद भी होगा इतना विह्वल