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नदी होना बेहतर है / गरिमा सक्सेना

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दक्षिण को मैं वाम लग रही
और वाम को दक्षिण लगती
पर दोनों के बीच खड़ी हूँ

एक नदी होना बेहतर है
कहो किनारा क्यों हो जाऊँ
भूल चेतना, चिन्ता, चिन्तन
किसी लीक को क्यों अपनाऊँ

जितना बाहर से दिखती हूँ
भीतर उससे अधिक गड़ी हूँ

दुर्योधन के छप्पन भोगों से
प्यारा है साग विदुर का
चाह यही है किसी डूबते
का बन पाऊँ मैं इक तिनका

सम्मानों हित कलम न थामी
सच की ख़ातिर नित्य लड़ी हूँ

सूरज की उपाधि देंगे जो
जुगनू के ठेकेदारों से
मैंने कविता दूर रखी है
मंडलियों से, बाज़ारों से

नहीं किसी ने मुझे बनाया
नहीं उजाड़े से उजड़ी हूँ

अंधभक्ति या अंधविरोधों
की क्यों अनुगामी बन जाऊँ
अंधकार से जब लड़ना हो
क्यों मैं अपनी पीठ दिखाऊँ

मेरी चाह उजास रही है,
दीपक बाले यहीं खड़ी हूँ।