कालाय तस्मै नमः / खण्ड-3 / भारतेन्दु मिश्र
101.
पाटल तन रंग भर गयी, मादकता सब ओर
पर दिन भर चंदन घिसे, चंचल चित्त चकोर।
102.
जिस शाखा पर मैं खिला, टूटी है वह डाल
कभी हवा, पानी कभी, क्रूर हो गया काल।
103.
फिर-फिर करता हूँ यजन, शुद्ध-बुद्धि निष्काम
झंकृति से स्वीकार लो, मेरे विनत प्रणाम।
104.
मेरे मन की अर्चना, तेरे मन के गीत
एकाकार हुए बने, विरल भक्ति संगीत।
105.
बार-बार देकर क्षमा, उनके झेले वार
पगले! पृथ्वीराज तू, मत जीते-जी हार।
106.
खिली खनकती-सी हँसी, किसलय जैसा गात
एक तोतले बोल से, मन हो जाता स्नात।
107.
उनके प्रश्न नगण्य हैं, मेरे प्रश्न नगेंद्र
देव सभा में कह रहे, बार-बार देवेंद्र।
108.
दमयंती व्याकुल हुई, सूखा नल का कंठ
अब न कहीं पानी बचा, अब क्यों मन उत्कंठ?
109.
पोर-पोर कटुता बसी, रोम-रोम में चीख
अब संस्कृति की रस भरी, नहीं रही वह ईख।
110.
मधु न मिला, चुभते रहे, मधुमक्खी के डंक
जितने कमल खिले नहीं, उतना विकसा पंक।
111.
वृद्धावस्था जी रहा, अब किशोर नादान
बाज सरीखी मौत ही, जीवन का वरदान।
112.
जिनके काले कर्म हैं, उनको मिला प्रकाश
अँधियारा करने लगा, ज्योति-पुत्र का नाश।
113.
जिस गाड़ी को खींचता, रहा कराह-कराह
मुझको लेकर हो रही, अब वह बेपरवाह।
114.
खटते-खटते खट गया, कोई मेरे साथ
समझ नहीं पाया जिसे, था वह बायाँ हाथ।
115.
दिन भर की टूटन-घुटन, तन को कठिन थकान
सुबह शाम मन पोंछ तू, भर देती मुस्कान।
116.
टूटी रग-रग कह रही, बुझ जा, री कंदील
जीवित गंगापुत्र सा, बिछी कील-ही-कील।
117.
वासंती ने ख़त लिखा, अब होकर ग़मगीन
पतझर नोटिस दे गया, फूल और फल छीन।
118.
घर-आँगन-छत खिड़कियों में, चहकी अविराम
वह मैना अब कै़द में, रटती पिय का नाम।
119.
पर फैलाये दूर तक, दिन-दिन भरी उड़ान
दो दाने के ब्याज में, ठहरी सिर्फ़ थकान।
120.
राजा ने पूछा नहीं, जब परजा का हाल
खुद ही उसने तोड़ दी, तब अपनी हड़ताल।
121.
बाँस रह गये उड़ गया, ऊँचा गढ़ा मचान
वे आपस में पूछते, तेरी क्या पहचान?
122.
चीखी, रोयी गिर-थमी, शकुंतला अब मौन
यह अभिशप्त नगर, तुझे पहचानेगा कौन?
123.
जनम-जनम की मैं कथा, कादंबरी समान
वैशम्पायन शुक मुझे, अब तो तू पहचान।
124.
जिनका मन धन में रमा, अंतस् नहीं प्रबुद्ध
अब वे मोहासक्त हो, बन बैठे हैं बुद्ध।
125.
आम्रपालियाँ घूमतीं, कर शत-शत शृंगार
बुद्ध कर रहे इन दिनों, फिर उनका उद्धार।
126.
अब अशांत हो चीखते, सारे चैत्य विहार
बाज छीन कर ले गया, उनका सुख संसार।
127.
अपने ही लघु नीड़ में, शांत कर्म में सिद्ध
रहती थी चिड़िया कहीं, खींच ले गया गिद्ध।
128.
अंगारे बोने लगे, फिर अशोक के पेड़
संगीनें रचने लगीं, बटवारे की मेड़
129.
रोज तितलियाँ दे रहीं, अब ख़ुशबू के दंश
छिन्न-भिन्न होने लगा, उस गुलाब का वंश।
130.
दूरबीन से देखते, बहुत रम्य हिम शैल
खच्चर लादे पीठ पर, कुछ घोड़े कुछ बैल।
131.
शंख बजे, घुँघरू सजे, ग़मके ख़ूब मृदंग
फिर गूँगे के गीत पर, सभा रह गयी दंग।
132.
सूत्रधार है धार पर, अब नाटक से पूर्व
यह नगरी अंधेर की, चौपट राज अपूर्व।
133.
नचिकेता से ख़ुश हुए, तो बोले यमराज
घर-कपड़ा-रोटी न कह, स्वर्ग माँग ले आज।
134.
हवन कराकर दे रहा, गाली अब जजमान
भूखा पंडित माँगता, सिर्फ़ भीख के प्रान।
135.
ऋतंवरा रचने लगी, रक्त-पात अध्याय
चिनगारी फूली, फला, राजनीति व्यवसाय।
136.
जिस निकुंज में खेलते, थे रति-रस के खेल
वहाँ पड़ोसी वह गया, चिनगारी की बेल।
137.
रोज अघोषित युद्ध है, बजता कभी न शंख
सुबह शाम लथपथ मिलीं, कुछ लाशें, कुछ पंख।
138.
सम्मोहन-मोहन नहीं-मुरली भरती हूक
राधा पछताती नहीं, अब-जब होती चूक।
139.
महँगाई में तैरती, जो काग़ज़ की नाव
उस पर बैठे नागरिक, लिये अनेक अभाव।
140.
शकुंतला की गोद में, सहमा-सिकुड़ा ढेर
जब से देखा भरत ने, कल मिट्टी का शेर।
141.
शकुंतलाएँ खोजतीं, अखबारों में कंत
चपरासी की नौकरी, करते हैं दुष्यंत।
142.
यह अंधों का राज है, सफल पाप के मंत्र
दुर्योधन फूला फिरे, फला आज षड्यंत्र।
143.
जो हँसता है टूटकर, उसका अमिट प्रभाव
यहाँ विरासत में मिले, सपने और अभाव।
144.
दुरदिन जिनका बाप है, साथी है फुटपाथ
आस लिए बैठे हुए, लिए कटोरा हाथ।
145.
बिना लिखे ख़त में मिला, सहमा हुआ गुलाब
और लिफाफे पर लिखा, देना मुझे जवाब।
146.
सुविधाओं का कर रहे, जो डटकर उपयोग
हम-तुम सबके बीच वे, बड़े पते के लोग।
147.
पहले घर-बेघर किया और किया बदनाम
अब गेरू से चित्र रच, करता यक्ष प्रणाम।
148.
तुम्हीं इंद्रजित हो नहुष, अग-जग के अवतंस
ढोयेगा ही पालकी, यह शापित ऋषि-वंश।
149.
अब वसंतसेना न कर, चारुदत्त से प्यार।
ज्ञान और गुण व्यर्थ है, वह बेघर बेकार।
150.
चढ़ा रहे सिर पर सदा, मेरे, शिव का नाग
बहती गंगा में दिये, स्वाभिमान की आग।