भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये शबे-अख़्तरो-क़मर चुप है / 'अना' क़ासमी

Kavita Kosh से
वीरेन्द्र खरे अकेला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:15, 30 दिसम्बर 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये शबे-अख़्तरो-क़मर चुप है,
एक हंगामा है मगर चुप है।

चल दिए क़ाफ़िले कयामत के,
और दिल है कि बेख़बर चुप है।

तेरे गेसू और इस क़दर बरहम,
इक तमाशा और इस क़दर चुप है।

पहले कितनी पुकारें आती थीं,
चल पड़ा हूँ तो रहगुज़र है।

बस ज़बाँ हाँ कहे ये ठीक नहीं,
क्या हुआ क्यों तिरी नज़र चुप है।

साथ तेरे ज़माना बोलता था,
तू नहीं है तो हर बशर चुप है।

बर्क़ ख़ामोश, ज़मज़मे ख़ामोश,
शायरी का हरिक हुनर चुप है।

राज़ कुछ तो है इस ख़मोशी का
बात कुछ तो है, तू अगर चुप है