कालाय तस्मै नमः / खण्ड-5 / भारतेन्दु मिश्र
201.
खींच लिया जल सतह का, सूख गये सब कूप
इस छोटे से गाँव के, तुम्हीं प्रमुख नलकूप।
202.
मुझे काटकर बह रही, तीखी जल की धार
किंतु कूल हूँ, नदी से, जनम-जनम का प्यार।
203.
फिर कलशों पर चित्र लिख, उगा तपा दिनमान
पनघट प्यासे कूप पर, गया न उसका ध्यान।
204.
निष्फल लहराती रहीं, स्वप्न लताएँ बाँझ
दबे पाँव आकर चली, गयी वसंती साँझ।
205.
बूढ़े बरगद ने सुनी, जब वसंत की थाप
लगा लता से पूछने, कद-काठी की माप।
206.
जिसकी खातिर तोड़ दी, मैंने हर दीवार
उसने मुझको देखकर, बंद कर लिया द्वार।
207.
तार खिंचे, सरगम लुटी, बिखर गया संतूर
उसने जीवन भर चखे, थे खट्टे अंगूर।
208.
सुधियों की छत ढह गयी, बिका नीड़ का प्यार
फिर उसने ही रौंद दी, आँगन की कचनार।
209.
बुद्धि भ्रमित, मन था चकित, पुलकित थे सब रोम
प्रथम प्रणय-क्षण लगा था, मुट्ठी में है व्योम।
210.
पगडंडी की धूल है जयों आँवे की राख
जोड़-तोड़ कर बन गया, जेठ आज बैसाख।
211.
नयनों का जल निकलकर, बहता काजल संग
इसीलिए मुख-चंद्र में, दिखता श्यामल रंग।
212.
किरणें जल पर लिख रहीं, सतरंगी अभियान
समय युद्ध पर जा रहा, साधे सूर्य कमान।
213.
शूल-मार्ग पर झोपड़ी, चिंता का सहवास
अब मुसीबतें कर रहीं, डट कर यहीं प्रवास।
214.
आँखों में कटने लगी, रोते-रोते रात
जहर पी रहा रोज़ ही, अब भूखा सुकरात।
215.
वर्षों से प्यासा पड़ा, ताल बिना बरसात
अब वे पंछी उड़ गये, मुरझाये जलजात।
216.
टकराती हैं ख़ुशबुएँ, वहाँ जाम पर जाम
तड़प-तड़प प्यासा मरा, यहाँ उमर खैयाम।
217.
दिया वक़्त ने आपको, जो काग़ज़ का फूल
यह क़िस्मत है आपकी, हँसकर करें कुबूल।
218.
मुझ-सा जाहिल है कहाँ, तुम-सा कहाँ अदीब
अब तो आप सिखाइये, कुछ तिकड़म तरकीब।
219.
गर्म हवा की सूचना, देते हैं अखबार
मोर नाचना भूलकर, चुगने लगे अँगार।
220.
मन के भीतर घट रही, हल्दी-घाटी रोज
स्वाभिमान करने लगा, फिर प्रताप की खोज।
221.
तितली रस लीे उड़ चली, हिला देर तक फूल
पँखुरी-पँखुरी में धँसे, फिर टहनी के शूल।
222.
उधर तीर अन्याय के, इधर सत्य की ढाल
बचना है अभिमन्यु तो, देख समय की चाल।
223.
तीखे शूलों-सी चुभी, वह रेशम की धूप
सब बेपानी हो गए, निर्झर-पोखर-कूप।
224.
थका-रुका-टूटा रहा, मैं रेती पर बैठ
जाल समेटे जा रहे, जिनकी गहरी पैठ।
225.
सूखी पलकों पर टँगे, अगणित वंदनवार
छलना-सा छलता रहा, सतरंगी संसार।
226.
जब गंगू राजा बना, बना भिखारी भोज
तब सतरंगी झील के, नोचे गये सरोज।
227.
लाल हुई, पीली पड़ी, अब है नीली देह
इस पथराये शहर का, इतना मिला सनेह।
228.
अदल-बदल कर सज-सँवर, नित नूतन विन्यास
मुख ऊपर मुस्कान रख, मन हो अगर उदास।
229.
लोहे जैसी रात है, कहाँ स्वर्ण-सा घाम
चाँदी-सी पूनम नहीं, ताँबे जैसी शाम।
230.
तंबू-से बादल तने, सिकुड़ा मन आकाश
मेरे छप्पर का हीं, करे न विद्युत नाश।
231.
कमलनयन से जब मिली, मृगनयनी की दृष्टि
इंद्रधनुष पल हो गया, मन सतरंगी सृष्टि।
232.
इधर-उधर सब ओर से, इस दुनिया को लूट
ख़ुश रहने का ये भरम, कहीं न जाये टूट।
233.
लगे फूटने आज फिर, पीड़ाओं के छंद
गीत हर्ष के बिक गये, हाट हुए सब बंद।
234.
रहे लूटते रात-दिन, तस्कर जिसे निशंक
उसका पति सोता रहा, मौन गहे पर्यंक।
235.
रूप-गंध-रस से भरे, अब न कुसुम सुकुमार
लेकिन साँसों में बसी, अभी किशोर-बयार।
236.
जब गदरायी उम्र में, गाढ़ा हुआ सनेह
भोगवाद में रम गया, पत्नी सहित विदेह।
237.
ऐसी हो प्रभु की कृपा, खाली रहे न जेब
पेट भरे, कपड़ा मिले, भले न हो पाजेब।
238.
उड़े-थके-टूटे-गिरे, दिन भर शांति-कपोत
मजे लूटते रात भर, यत्र तत्र खद्योत।
239.
पीछे मुड़कर देखना, अब तो हुआ हराम
रोज दौड़ प्रतियोगिता, मुँह में कसी लगाम।
240.
सूरज के उत्कर्ष में, जल-भुल रहा पठार
रोज रात ठंडा पड़ा, सो जाता लाचार।
241.
लत्ते जैसी ओढ़नी, चिथड़े हुई कमीज
आजादी के बाद भी, हिन्दी रही कनीज।
242.
बिगड़-बिगड़ कर, बन रहे, नये-नये प्रतिमान
कल बिकता था आदमी, अब उसका ईमान।
243.
पहले तू इस शहर की, सभी गोटियाँ पीट
और खड़ा हो, टिकट ले, निकल जायगी सीट।
244.
अग्नि-बाण गिरने लगे, अब फसलों पर नित्य
महाराज के चल रहे, अपने दैनिक कृत्य।
245.
महामहिम ने कर दिया, अब उसको कृतकृत्य
बहुत धूर्त था तिकड़मी, वह सरकारी भृत्य।
246.
चाटुकारिता ने किया, फिर मेरा श्रम व्यर्थ
अवगुण गुण माना गया, अब वह परम समर्थ।
247.
निंबिया बोली आम से, भूल गया अनुबंध
मैं बौरी, जब-जब मिली, तेरे तन की गंध।
248.
चंदन-रोली और अब, अक्षत-पुष्प विधान
सिंह कर रहा यथाविधि, गीदड़ का सम्मान।
249.
अब दिग्वधुएँ रो रहीं, घायल हैं दिक्पाल
धरती पर आतंक की, जलने लगी मशाल।
250.
एक घाट रहने लगे, बकरी-भालू-शेर
क्योंकि यहाँ चलने लगा, कुर्सी का अंधेर।