कालाय तस्मै नमः / खण्ड-9 / भारतेन्दु मिश्र
401.
जिन साँसों में घुली थी, अगरु-धूप की गंध
उनसे ही आने लगी, अब सड़ांध-दुर्गंध।
402.
जल के तल पर बिछ गयी, है मोटी शैवाल
लज्जित सर ने ओढ़ ली, यह काई की शाल।
403.
बूँद गिरी, बदली घिरी, धरती हुई प्रसन्न
फिर नेता जी ने कहा, ख़ूब मिलेगा अन्न।
404.
अब पछुआ की पेंग पर, झूल रहा है देश
पुरवाई की थाप का, कौन सुने संदेश।
405.
मन सावन-सा चू रहा, बूँद-बूँद कर रोज
प्यासी आँखें कर रहीं, इंद्र-धनुष की खोज।
406.
छन-छन बूँदें गिरी रहीं, रोम-रोम तर आज
गीत श्रावणी ने रचे, भीगा सकल समाज।
407.
धुआँ समय का धो रहे, अब मल-मल का आम
बैठ डाल पर कोकिला, कूकेगी कल शाम।
408.
सड़कों पर भरने लगा, घर गलियों का नीर
अब बदबू ढोने लगा, शीतल-मंद-समीर।
409.
परी उतर कर रो रही, इस धरती पर एक
दूषित है पर्यावरण, आहत पड़ा विवेक।
410.
ढाई डग धरती नहीं, सुख की नहीं बयार
बिगड़ चुके सब संतुलन, पगलाया संसार।
411.
सभी नीतियाँ हो रहीं, एक-एक कर फेल
शक्ति क्षीण होने लगी, ख़त्म हो रहा तेल।
412.
खूब तैर ली ताल में, यह काग़ज़ की नाव
जल प्लावित होने लगा, अब तो सारा गाँव।
413.
उठा अँगीठी से धुआँ, सर्पिल भरे गुबार
माँ की खाँसी देर तक, उखड़ी बारंबार।
414.
बजी बाँसुरी चैन की, भरा पेट था रात
अब शिशु रोया भूख से, दिखता नहीं प्रभात।
415.
जोड़े हाथ खड़ा रहा, सूखा-सा तरु एक
सिर हो-हो कर जा रहे, बादल नित्य अनेक।
416.
सूखे बरतन माँज लो, यह है राजस्थान
राजाओं को भी नहीं, मिलता जल सम्मान।
417.
रीढ़ टूटकर गिर गयी, इंद्रधनुष की आज
इस सीमा तक हो गया, यह बदरंग समाज।
418.
तरु का किसलय झुलसता, धुआँ-धुआँ सब ओर
वर्षों से बीमार है, इस उपवन का मोर।
419.
मेरा साया भी गया, साथ छोड़ उस ओर
जिधर अस्मिता को लिए, भाग रहे थे चोर।
420.
घटा ताप, मन की जलन, हुई एक दो तीन
लगी बिछाने श्रावणी, हरी-भरी कालीन।
421.
धर्मबुद्धि ने लूट ली, उसकी सब संपत्ति
मंद भाग्य रोता रहा, सहता रहा विपत्ति।
422.
हाथी छूकर मारता और सूँघकर साँप
जब चाहें तब मार दें, सिर्फ़ देखकर आप।
423.
भ्रकुटि भंग में कोप था, मन में था उल्लास
कल फिर आयी देर से, जब वह मेरे पास।
424.
मैंने आँखें मीच लीं, उसने पकड़े कान
इससे आगे और फिर, क्या करती मैं मान?
425.
मुँह फेरे लेटे रहे, पहले दोनों मौन
पुनः परस्पर पूछते-वह था, वह थी, कौन?
426.
कुतर रहे थे बेझिझक, जब चूहे ऋग्वेद
मन पंडित करता रहा, रात-रात भर खेद।
427.
उठता गिरता रोज़ ही, सूरज का अभियान
जुगुनू भी करने लगा, अब उसका अपमान।
428.
दृष्टि खो गयी, मिल गये, अंधे-लँगड़े चोर
देश नोचकर खा रहे, हैं कुछ आदम खोर।
429.
सतरंगी तितली उड़ी, सात समुंदर पार
अब तक जो ढोती रही, काँटों का अभिसार।
430.
सप्तपदी के बोल थे, सात जनम का प्यार
और सात पल में हुई, दोनों में तकरार।
431.
देख-देख कर चल दिये, लोग सड़क पर लाश
एक आदमी, भावना करती रही तलाश।
432.
बनीं, मिटीं, मिटकर बनीं, रेखाएँ दो चार
उसने जीवन भर किया, सुख का मंत्रोच्चार।
433.
सन्नाटा लिखने लगा, साँय-साँय के गीत
ज्योति-पुरुष हारे थके, गया अँधेरा जीत।
434.
खोल कमलदल पाँखुरी, महकाया जब गात
सोनपरी ने लिख दिया, जल पर स्वर्ण प्रभात।
435.
लतिकाओं की वेणियाँ, किसलय का सिंदूर
रूप सजाकर श्रावणी, चली गयी अति दूर।
436.
रोज पोछती स्वेद-श्रम, निशिभर उसकी याद
जिसके कारण उम्र भर, चलते रहे विवाद।
437.
लगा झाँकने खिड़कियों, से सुरमई प्रभात
चिड़िया जागी, तरु हँसा, लो ये बीती रात।
438.
रोज नहा धोकर पहन, चिंता की पोशाक
छान रही है जिंदगी, गली-गली की ख़ाक।
439.
कीलदार जूते पहन, मुँह सिल, भर मुस्कान
सहम-सहम कर क़दम रख, जीवन है वरदान।
440.
मरकर ही होता जहाँ, आने का संयोग
भाव ताव करने लगे, उस मरघट पर लोग।
441.
तू मत उसकी गैल चल, छोड़ सभी व्यवहार
हरजाई है, करेगी, वह तो खसम हजार।
442.
टकरायेंगे इस तरह, दोनों के अभिमान
कब सोचा था प्रीति का, होगा यूँ अवसान।
443.
रेत सखी के हाथ पर, लिख-लिख प्रिय का नाम
थकी सो रही है उषा, ख़ूब हुई बदनाम।
444.
उस मंदिर के नाग ने, खाये विहग तमाम
मस्जिद वाले बाज का, लेते हैं सब नाम।
445.
राज्यसभा की भाँति हम, हुए न अब तक भंग
सुख-दुख जैसे सभासद, दो दिन रहते संग।
446.
रह-रह उठती थी नजर, जिस घूँघट की ओर
अब वह चौपट मुख लिए, घूम रही सब ओर।
447.
भींच मुट्ठियाँ हाथ में, धूप पकड़ कर भाग
सरक ने जाये रेत सी, कहीं समय की आग।
448.
सहम सिकुड़ कर बैठ चुप, सुन मर्दों की बात
जोर-जोर से हँस रही, तू है औरत जात।
449.
सोच समझ लिखना यहाँ, मन वंशी पर नाम
तू मीरा-सी साधिका, वह मुरलीधर श्याम।
450.
कटे हाथ भटके यहाँ शिल्पी, गढ़ कर ताज
और दफन हैं चैन से, शाहजहाँ मुमताज।