कालाय तस्मै नमः / खण्ड-11 / भारतेन्दु मिश्र
501.
मौसम पहने बघनखा, हवा खेलती खेल
शाख-शाख बैठे हुए, उल्लू लिये गुलेल।
502.
पिंजरे में है केसरी, मंच चढ़े भल्लूक
भेंटवार्ता दे रहे, अब श्रीमान उलूक।
503.
शहर-शहर में हो गया, मानो जंगलराज
अब कुतिया की पीठ पर, रघुआ करता खाज।
504.
बुझा आरती का दिया, जला देव का भाग
यूँ भी अब इस देश में, लग जाती है आग।
505.
वोट मिले, पैसे मिले, सड़क लाल है आज
इसको कहते हैं मियाँ, एक पंथ दो काज।
506.
शब्द निरर्थक हो गये, छोड़ो धर्म-अधर्म
शर्मा शरमाता नहीं, तुमको कैसी शर्म?
507.
चढ़ी मछलियाँ नाव पर, नदिया उड़ी अकास
नाविक डूबा रेत में, बगुला भया उदास।
508.
देखे जिसने सैकड़ों, पतझर और बसंत
वह बरगद काटा गया, मारा गया महंत।
509.
कुत्ते जैसा भौंकना, बिल्ली जैसी चाल
कौए जैसी आँख से, कुर्सी रखी सँभाल।
510.
धूल नहायी चिड़ी का, था इतना विश्वास
इक दिन बरसेगा यहाँ, मुट्ठीभर आकाश।
511.
हरसिंगार की डाल से, झरे आग के फूल
राख सरीखी जल उठी, गलियारे की धूल।
512.
इंद्र कपट के वेश में, माँगे रति की भीख
कौन सुनेगा अब यहाँ, पाषाणी की चीख।
513.
इस युग का राहुल खड़ा, गलियारे में आज
दिन का शव सड़ता रहा, रहे नोचते बाज।
514.
उजड़ गई वह टेकड़ी, बिखर गया वह गाँव
जली वंश की बाँसुरी, तापे गये अलाव।
515.
मुझको घर्षण ने जना, मैं समुद्र का झाग
औषधि जैसा पूजते, काशी और प्रयाग।
516.
जल मथती नौका नहीं, मुझे न तट की चाह
पग चिह्नों से लिख सकूँ, जल के तल पर राह।
517.
अपनी धरती खुरचते, अपने ही नाखून
जाति धर्म ले पीठ पर, अंधों का कानून।
518.
धरती पहला छंद है, सुनें गुनें चुपचाप
खरबूजे की फाँक सा, इसे न बाँटें आप।
519.
ढहीं सभी ऊचाइयाँ और जले घर बार
रोज मनाने हम लगे, नफ़रत के त्योहार।
520.
नरकुल काटे, वन कटे, कटती गयी जमीन
स्वप्न विहग घायल पड़े, टूटी मन की बीन।
521.
पकड़ स्वार्थों की सड़क, चले गये सब यार,
जड़ें जमाये खड़े हो, तुम बरगद छतनार।
522.
हाथी उड़ा जहाज़ में, चींटी ढोती भार
मन सूखा सैलाब में, हवा हुई बीमार।
523.
अब महोख शामिल हुआ, उन कौओं के संग
चढ़े न जिन पर आज तक, पाप-पुण्य के रंग।
524.
रस भीनी ठुमरी मरी, कहाँ धु्रवा के राग
अब अभिनय में दम कहाँ, कहाँ सृजन की आग?
525.
शाप-मुक्त हो उर्वशी, चली इंद्र के पास
व्याकुल होकर पुरुरवा, आफिस गया उदास।
526.
निष्ठाएँ घायल हुईं, पागल हुआ विवेक
लोग जाति की आँच में, रहे रोटियाँ सेक।
527.
जलीं आयतें देश में, जले संहिता पाठ
मंदिर-मस्जिद जल रहे, कुर्सी करती ठाठ।
528.
कुत्तों को कुर्सी मिली, मिली सिंह को जेल
हाथी-चींटी सभी से, गीदड़ करते खेल।
529.
टूटी नौका साँस की, व्यर्थ सभी संदेश
सूरज फिर रौंदा गया, चंदा गया विदेश।
530.
चिट्ठी मिली बसंत की, फिर बौराये आम
फूल-फूल पर लिख रहा, टेसू कत्लेआम।
531.
छलनी में पानी भरा, कसी हवा में गाँठ
आग लगायी नदी में, तब पाये ये ठाठ।
532.
वृक्षों ने फल खा लिये, नदी पी गयी नीर
आत्मा की लाशें लिए चलते रहे शरीर।
533.
मौसम का ज्वालामुखी, राजनीति का ज्वार
लावा घर-घर फूटता, हर मनुष्य बीमार।
534.
मरी हमेशा बकरियाँ, पूजे गये शृंगाल
सदियों से चलता रहा, हाथी अपनी चाल।
535.
सड़े संगठन के नियम, चढ़ी स्वार्थ की खाल
इस जनहित के ढोल को, रखिये आप सँभाल।
536.
अब बजता है आदमी, अब ढपली है मौन
पंछी अपनी हाँकते, किसकी सुनता कौन?
537.
उगा आँख में आपकी, एक सूअर का बाल
उसी दृष्टि से कर रहे, सबको आप निहाल।
538.
उलटे लटके आदमी, चमगादड़ के घाट,
गीदड़ सबकी इन दिनों, खड़ी कर रहा खाट।
539.
गूँगे शंखों की सभा, झेल रहे मंजीर
ढोल सुनाती चीख कर, केवल अपनी पीर।
540.
गर्भवती चिड़िया मरी, भूखी प्यासी आज
गर्भपात की विवशता, घर में था न अनाज।
541.
मरीं सुखद अमराइयाँ, झरे शगुन के फूल
कुछ पीले चावल लिये, रोता रहा बबूल।
542.
सरजू तट पर घोटकर, राजनीति की भंग
समय बजाता शंख अब, धर्म बजाता चंग।
543.
पैर कटे, पर कर रहा, अश्व हवा से बात
रोज समय की चाबुकें, करतीं वज्राघात।
अमलतास निर्वस्त्र है, बेला ओढे शाल
रोयी घर-घर चाँदनी, सूरज है बेहाल।
545.
कार्यालय में बैठ कर, रोज़ मक्खियाँ मार
दे ही देगी तरक्की, कल तुझको सरकार।
546.
मंदिर-तुलसी-सातिए, घर-आँगन सब फेल
कुछ न मिला, फूली नहीं, घर में धन की बेल।
547.
छू-छूकर परछाइयाँ, होता रहा निहाल
झींक-झींक जीता रहा, मन में लिए मलाल।
548.
छोड़ घोसले उड़ गये, खग शावक परदेस
माँ की ममता मर मिटी, व्यर्थ सभी संदेश।
549.
बया उड़ी, तरु कट गया, टूटी सब उम्मीद
बाज मनाता इन दिनों, रोज़ शहर में ईद।
550.
रेत रह गयी अब नदी, जल का हुआ अकाल
मछुआरा भूखों मरा, लिए हाथ में जाल।