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कालाय तस्मै नमः / खण्ड-12 / भारतेन्दु मिश्र

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551.
लौट गये सारस सभी, सूख रही है झील
अब टीलों पर बैठते, कुछ कौवे, कुछ चील।

552.
धूप-छाँव के खेल में, जीत गया गुलफाम
तब उस बस्ती में हुआ, था कल कत्लेआम।

553.
काली-काली हो रही, कनकछरी की देह
बेमन लुटवाती रही, मन का सहज सनेह।

554.
चितवन औ’ मुस्कान की, वे देती हैं घूस
अब कुर्सी के सामने, पुरुष हुए मनहूस।

555.
सींघ मारते जा रहे, अब जनपथ पर साँड़
जलसे संसद मार्ग पर, गाल बजाते भाँड़।

556.
घर-घर ग़मले में खिले, फूल-फूल छल-छंद
अब ख़ुशबू के गर्भ में, पलती है दुर्गंध।

557.
तंबू जैसे तन गये, छोटे-छोटे लोग
कीकर भी करने लगा, फूलों का उद्योग।

558.
चाँदी का जूता चला, चढ़ काग़ज़ की नाव
नदी रेत में डूबकर, सहती रही अभाव।

559.
बूँद-बूँद होकर बहा, चिड़िया का विश्वास
गागर का मंथन हुआ, सागर भया उदास।

560.
मानसरोवर में दिखे, अब जो तिरते हंस
वे बतखों के पुत्र हैं, बक कुल के अवतंस।

561.
सड़ी मछलियाँ खोजते, कुछ बगुले, कुछ चील
खाते-पीते कर रहे, मीन रहित यह झील।

562.
चूहे से कुत्ता बना, फिर कुत्ते से शेर
अब कुर्सी पर बैठकर वह करता अंधेर।

563.
राजनीति की कोढ़ में, हुई जाति की खाज
बजती बंसी चैन की, चरवाहों का राज।

564.
कहीं लाठियाँ चल रहीं, कहीं शांति के गीत
कहीं भागवत स्वार्थ की, कहीं मृत्यु संगीत।

565.
चलकर ले भोजन भजन, अवसर जाय न बीत
गति, यति, रति, मति आज तो, सब कुछ है विपरीत।

566.
पिपल का बिरवा उगा, षड्यंत्रों को तोड़
मौलिकता की दूब से, हारे छद्म करोड़।

567.
खाना, गुर्राना मगर, लेना नहीं डकार
इसी तरह हो जाएगा, देश धर्म-उद्धार।

568.
ताली दोनों हाथ से, बजती मेरे यार
सुविधा शुल्क दिये बिना चाह रहा उद्धार।

569
चढ़ जा प्यारे भीड़ में, यह सरकारी रेल
भीड़ तंत्र की रैलियाँ, बिना टिकट का खेल।

570.
उस दिन फीता काटकर, बगुला उड़ा अकास
शिला लेख टाँके गये, रचा एक इतिहास।

571.
रोज हजामत कर रहा, सबकी सुबहो शाम
नेता से मंत्री बना, पहले था हज्जाम।

572.
कैंची के दो फलन हुए, नेता अफसर एक
प्रजातंत्र की ओढ़नी, रहे काट कर फेंक।

573.
कल फिर जूता लात से, सभी हुई संपन्न
ढोल मँजीरे हो गये, दो फाड़ों में भिन्न।

574.
अब चिड़िया लेकर उड़ी, अपने हाथ गुलेल
इंसानों की मौत का, सह खेलेगी खेल।

575.
तिनका तिनका हो गयी, गौरैया की चंग
धूल फाँकती कोकिला, कौवे लिए मृदंग।

576.
नाम चलाने के लिए, यही भी एक पाय
तीस मक्खियाँ मार कर, तीसमार बन जाय।

577.
झगड़ा पशुओं ने किया, कटे-मरे इंसान
जब जी चाहे बेठता, ले यमराज दुकान।

578.
हिरन सोमरस पी रहे, आहत हैं वनराज
हंस मछलियाँ खा गये, अब बगुले नाराज।

579.
धीरे-धीरे रंगकर, चींटी चढ़ी पहाड़
और देखते-देखते, भरने लगी दहाड़।

580.
सोम सुंदरी के लिए, करते रोज़ अकाज
भगवत गीता बाँचते, लल्लू जी महाराज।

581.
नभगंगा में तैरते, मेरे प्रश्न अनेक
मुक्ति चाहने के लिए, गिरवी रखा विवेक।

582.
अब सोंधी माटी नहीं, अब न गंध के फूल
अब न आदमी आदमी, समय बड़ा प्रतिकूल।

583.
दायित्वों की बेड़ियाँ, सच की कसे नकेल
मौसम चाबुक मारकर, मुझको रहा ढकेल।

584.
ओंठ चाट सूखा सहा, आँसू पी सैलाब
बाँधे पेट अकाल में, लड़ता रहा जनाब।

585.
पलकों में काँटे चुभे, नींद गयी परदेस
राजा तेरे राज में, सबको यही कलेस।

586.
अब तू खुलकर खेल ले, दो दिन है मेहमान
जाने कब छिन जाय ये, पद-कुर्सी-सम्मान।

587.
अभी समय है जीत ले, कर ले दो-दो हाथ
कट जायेंगे पैर कल, हँस देगी फुटपाथ।

588.
पड़ी समय की मार जब, दुर्दिन आया द्वार
आँख फेर कर चल दिये, जो थे पक्के यार।

589.
फूलों के व्यापार में, था माली का हाथ
उजड़ी बगिया, आप क्यों, पकड़े बैठे माथ।

590.
कत्ल कर रहे फूल अब, गंध बेचता प्यार
न्यायमूर्ति करने लगे, नियमों से व्यभिचार।

591.
भरी फूँक तो तन गये, गुब्बारे से लोग
रक्त-पात का फल रहा, इसी भाँति उद्योग।

592.
सत्य और ईमान की, पगडंडी तू छोड़
घूस-दलाली-ब्लैक में ही? अब केवल होड़।

593.
बात हुई, नजरें मिली, होंठ हिले चुपचाप
सुख-दुख से ऊपर उठा, सच वह अपने आप।

594.
गीध कर रहे इन दिनों, रावण वध का स्वाँग
ठगी जा रही जानकी, संत छानते भाँग।

595.
सम्मेलन में तितलियाँ, शुशबू रहीं बिखेर
अब गुलाब औंधे पड़े, सहते हैं अंधेर।

596.
ऋतु ने पीले पत्र जो लिखे वक़्त के नाम
यह गर्मी यह लू लपट, है उसका परिणाम।

597.
रोटी का टुकड़ा मिला, बहुत दिनों के बाद
ख़ुशहाली के स्वप्न फिर, अब आते हैं याद।

598.
घायल है संवेदना, छिले शब्द के पैर
अर्थ कर रहे इन दिनों, नीरस तट की सैर।

599.
अब अलता बेकार है, सेज बिछी है काँच
घुँघरु मजबूरी बने, नाच मयूरी नाच।

600.
चींटी के पर आ गये, हुई तनिक बरसात
साथ रेंगती थी अभी, अब करती है घात।