भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दौड़ जाने दो क्षण भर / इला कुमार

Kavita Kosh से
Sneha.kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:50, 25 नवम्बर 2008 का अवतरण (Added the whole Poem)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दौड़ जाने दो क्षण भर


आपकी स्नेह भरी छांव को झुठलाती मैं

नन्हीं चिड़िया सी घर में इधर-उधर फुदक जाती मैं


पर

उसी छांव के सहारे पलती बढती

जाने कब हुयी घने वृक्ष जैसी बड़ी मैं

पता नहीं बीते कितने बरस

भूल गए क्षण, सारे के सारे, पुराने पल

इस क्षण ऊंचे लोहे के जालीदार गेट को देख

मन क्यों अकुलाया

एक बार झूलने को तत्पर


मुड़कर पीछे देखने पर ज्यों

निहारता है मुझे मीठी निगाहों से

कोई जादूगर

ना रोको नहीं मुझे

अभी क्षणांश में लौट आऊंगी

पर इस पल दौड़ जाने दो मुझे बाहें फैलाए

फूली फ्रोक के घेरे के संग-संग

बचपन कि कच्ची पक्की गलियों में क्षण भर