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चतुर काव्य के प्रेत / नेहा नरुका

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अगर रामचन्द्र शुक्ल टाइप
कोई आलोचक ज़िंदा होता
तो पता है तुम्हारे बारे में क्या लिखता
वह लिखता, "इन्हें कवि हृदय नहीं मिला है,
चार किताबें पढ़कर विद्वानी और भाषा कौशल से
अपने कवित्व की धाक जमाना चाहते हैं।"

मेरे जैसे हिन्दी पाठक तुम्हें
चतुर काव्य का प्रेत कहकर चिढ़ाते
और तुम समझते,
ये सब ईर्ष्या-द्वेष से मुझे ट्रोल कर रहे हैं
मैं इक्कीसवीं सदी का महाकवि हूँ ।

तमाम ग़लतफ़हमियों के बीच
अतिआत्मविश्वास में घिसकर
काट लेते तुम अपना लंबा जीवन

बिना यह सोचे कि तुम
चारों तरफ़ से कला सामन्तों से घिरे हो
किसी जन का तुम्हारे जीवन से कोई नाता नहीं
और इसलिए ही तुम्हारी कविता में भी कोई दम नहीं
सिवाय इसके कि एक बड़ा आलोचक
रोज़ शाम को तुम्हारे साथ सिगरेट पीता है
और उसकी सिगरेट का पैसा तुम भरते हो
इसलिए नगरश्रेष्ठ कवि कहलाने पर
सबसे पहला विशेषाधिकार तुम्हारा ही बनता है ।

तुम्हारी कविता को पढ़ते हुए लगता है
तुम दरअसल कवियों के बीच फँसे हुए एक व्यापारी हो
जिसे व्यापार करने के लिए वस्तुएँ नहीं मिलीं
तो कविता में ही बेचने-ख़रीदने की गुंजाइश खोजने लगा

अब तुम कितना भी बेच लो
एक बात तो तय है
कविता के व्यापार से अम्बानी तो नहीं बन सकते

अम्बानी तो सात समन्दर पार की बात हो गई
तुम तो मेरे शहर के सबसे पुराने
भूरा पंसारी भी नहीं बन सकते

मगर किया भी क्या जाए
मज़बूरी समझती हूँ तुम्हारी
तुमने शब्दों के अलावा किसी और से
खेलने का कौशल भी तो नहीं सीखा
अगर सीखते और मुझे कोई जादू आता
तो मैं तुम्हें अभिताभ बच्चन या
सचिन तेंदुलकर या कुमार विश्वास टाइप
कुछ बना देती
तुम्हें सफलता की सबसे ऊँची मंज़िल पर बिठा देती

और तब पूछती,
"अब बताओ कैसा लग रहा है चोटी पर पहुँचकर ?"
और मुझे यक़ीन है तुम कहते,
"मुझे कुछ महसूस ही नहीं होता ।"