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सांझ के बख्त / दिनेश शर्मा

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उस दिन
सांझ के बख्त
मैं रेलवे स्टेशन पै
मटरगस्ती कर रह्या था
लुगाइयाँ का एक टोल
पीपल धोरै बैठ्या
हे जी कोय राम मिलै भगवान
यू भजन सुमर रह्या था
फेर गाते-गाते
बीच भजन वें
दुःख सुख की बतलावन लागी
कोय सुनै अर कोय सुणावै
अपणा दिल समझावण लागी
मेरी आत्मा बी आज
जणू सोती सोती जागी
एक ताई के दरद की कहाणी
मेरा पाड़ कालजा खागी
भारी मन अर भरे गले तै
ताई सब कै श्यामी बोली
ले जबां का सहारा उसनै
दरद पिटारी खोली
अर न्यू बोली
रात नै उठ्या मेरै धसका ए
तीस घणी मन्नै लागी
पाणी माँगया छोटी बहू पै
नहीं बाहण वा जागी
सारी रैत या सोण ना देती
इसकी भर ल्यो कोली
बड़ी बहू सुण मेरा बोल
भीतर तै न्यू बोली
इसका कुछ ल्याज बणाओ
किते गंगा जी के कांठे पै
बाँध कै इसनै आओ ए
गाम की धरती बेच कै
जो शहर ल्याया था मन्नै
वो पूत पड्या धोरै सोवै था
ना पाणी पूछया उसनै
कहते ए या बात
ताई आख्याँ म्है आंजू आई
पर तुरत पल्लू गेलै
आंख साफ़ उन्नै कर ली
जब बेटा-बहू
आते दिए दिखाई
उस बख्त ताई तो
घूट सब्र का भरगी
पर मेरी दोनों आँख
पाणी तै तीरगी
भीतरला पूछै था मन्नै
के या ए सै तरक्की
जिस खातर तू गाम म्है तै
शहर आण नै तरसै था
देखे दिनेश
समो आवणी जाणी
बुढापा बी आवैगा
ना रहती सदा जवानी
देखागें फेर पड़े बख्त पै
तन्नै कौन पयावैगा पाणी-3