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परिक्रमा / उत्पल डेका / दिनकर कुमार

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बात थामती है
समय की जड़

जिस खिड़की पर सूरज बैठता है
उसकी छुअन से ज़िन्दा होती है
अधपकी बात

कौन किसे मात देता है
समय के विवर्तन में
कौन करता है संग्राम
किसका अधिकार
कौन करता है सन्धि या छल
सब कुछ है आपेक्षिक
गँवाता है कौन रिश्ता
करता है कौन विनिमय

बोझिल सांस को सम्भालकर
कौन सजाता है ख़ुद को चित्र की तरह

किसके लिए नग्न रातें
छोड़ देती हैं राह?
किसके लिए यह छाया-रोशनी
कौन किसका रक़ीब

हमारे उर्वर मन में
किसके लिए है यह तन्हाई
मृत्यु के उस पार दुख नहीं रहता।

मूल असमिया भाषा से अनुवाद : दिनकर कुमार