अजेय / अशोक तिवारी
अजेय ………
लॉक डाउन के दरम्यान जब थे हम घर की चार-दीवारी में क़ैद भोंपुओं ने चीख़ -चीख़कर घोला हमारे कानों में विष-अमृत और बार-बार चेताया - स्टे होम, सेफ़ होम। घर की बंद चिटखनियाँ क़यासभर लगाती रहीं बाहर के बारे में और हम आशंकाओं से भरे हुए उठाते रहे घनघनाते फोन बदलते रहे टीवी के चैनल मोबाइल को लगातार करते रहे चार्ज लेते रहे मज़ा नेटफ़्लिक्स का देखते रहे मनपसंद वीडिओ
वर्क फ़्रोम होम खाता रहा हमारे काम करने की संस्कृति को रचने लगा गुलामी का नया अर्थशास्त्र चक्कर काटता रहा पूँजीवादी फंदा हमारे दिमाग़ के चारों ओर ज़िंदा रहने - न रहने की आशंकाओं के बीच बजबजाता रहा कोरोना शब्द हमारे दिलों में ख़ून के प्रवाह के साथ
अपने क़रीबियों और संबंधियों की सलामती की आरजू में दम साधे पड़े रहे हम कोठरियों में क़ैद तस्वीर का यह एक पहलू था कि पॉज़िटिव शब्द नकारात्मकता भरने के लिए होता रहा इस्तेमाल गणितज्ञों का धनात्मकता का सिद्धांत ही कटघरे में खड़ा नज़र नहीं आया बल्कि पूरा सामाजिक विज्ञान प्रश्नों की ज़द में था जब शारीरिक दूरी बढ़ाने की बजाय सामाजिक दूरी को बढ़ाने का नारा उछाल दिया गया हवा में
लॉक डाउन में बंद जब हम घर में कोरोना से बचने का जाप कर रहे थे ख़ुद को सुरक्षित रखते हुए कुछ लोग घूरे के ढेर पर कूड़े को खँगाल रहे थे अपना पेट भरने के लिए सामाजिक सुरक्षा के नाम पर लोग अपना सिलेंडर अपनी बग़ल में दबाए अस्पताल भागे जा रहे थे और उनके परिजन रोते-बिलखते लाश थामे वापस आ रहे थे।
कौन से टापू के लोग थे वे जो कोरोना के डर को टांगकर खूँटी पर अपने घर में निकलते थे शहर की धड़कनों को यकसां बनाए रखने के लिए सुबह से शाम तक, हर इंतज़ाम के लिए घर से बाहर काम करने वाले ये लोग कौन थे और बने थे किस मिट्टी के कहाँ से आते थे ये, कहाँ जाते थे किस नदी में प्रवाहित करते थे घरों से इकट्ठा किया गया मनों कूड़ा? उनके मास्क कहाँ थे क्या कोरोना इनसे डरता है या कोरोना को डराते हुए मशगूल रहे ये ‘अजेय’ दुनिया को निरंतर चलाए रखने के लिए। .....................