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सागर - सन्ध्या / नलिन विलोचन शर्मा

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बालू के ढूह हैं जैसे बिल्लियाँ सोई हुईं,
उनके पंजों से लहरें दौड़ भागतीं ।
सूरज की खेती चर रहे मेघ - मेमने
विश्रब्ध, अचकित ।

मैं महाशून्य में चल रहा —
पीली बालू पर जंगम बिन्दु एक —
तट-रहित सागर एवं अम्बर और धरती के
काल-प्रत्न त्रयी-मध्य से होकर ।

मेरी गति के अवशेष एकमात्र
लक्षित ये होते :
सिगरेट का धुआँ वायु पर;
पैरों के अंक बालू पर
टंकित, जिन्हें ज्वार - भर देगा आकर ।