भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ तमंचे शेष चाकू हो गए / अशोक अंजुम

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 9 मार्च 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक अंजुम |अनुवादक= |संग्रह=अशोक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ तमंचे शेष चाकू हो गए!
यार मेरे सब हलाकू हो गए।

वे इलक्शन में जो हारे इस दफ़ा,
खीझकर चंबल के डाकू हो गए!

नग्न-चित्रों को पलटते थे मियाँ,
हम समझते थे पढ़ाकू हो गए।

बाद शादी के वे कुछ ही साल में,
उम्र-वालों के भी काकू हो गए!

देख लो बापू वे बन्दर आपके,
आजकल बेहद लड़ाकू हो गए!