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लकीरें / संतोष श्रीवास्तव
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जनवरी की सर्द रातों में
जब तुम्हारा स्पर्श
मुझ तक पहुँचा था
क्रौंच का विलाप
सदियाँ लांघ आया था
शिकारी आस-पास ही कहीं
धनुष ताने था
धनुष की प्रत्यंचा
तीर छोड़ने के पहले ही
रुधिर से लाल थी
तब कहीं से प्रतिध्वनि गूंजी थी
बह कर आए थे कुछ शब्द
सफेद स्याही से
सफेद काग़ज़ पर लिखे हुए
कि प्रेम को मार दिया गया है
और अभिशाप
अवतरित हो रहा है
गूंजती प्रतिध्वनियों में
पिछले जन्मों के कुछ गीत
कुछ विचलित करते स्वर
जिन्हें सदियाँ विवश है ढोने को
वे पीछे छोड़ती जाती हैं
पद चिन्हों की लकीरें
जो मेरी हथेलियों पर
गहरे खुदी हैं
उसी में कहीं
तुम्हारा नाम भी होगा
जो दिखाई नहीं दिया
मुझे अब तक
जन्मों का रीतापन ही
रहा बकाया