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संवाद आकाश रेखा तक / संतोष श्रीवास्तव

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मैं उसकी
आलोचना की शिकार तब हुई
जब उसने कहा लौट आओ
और मैंने सुना लौट जाओ

दरख़्तों पर ठहरते रहे परिंदे
पगडंडियों पर चलते रहे मुसाफिर
हवा कानों को छूकर
गुजर जाती रही
मैं फिर भी नहीं सुन पाई
उसके शब्दों की पुकार
लौटने और जाने के बीच
उलझता रहा समय

बीत जाने के बावजूद
आखिर सुना मैंने
उसके शब्दों को
सिहराते रहे उसके शब्द

उसने कहा मेरी पुकार
तुमने सुनी नहीं
मेरे शब्द निरर्थक करती रहीं
मूर्त को अमूर्त करती रहीं
प्रेम के बिंबो की
धारणा बदलती रहीं

देखो मुझे देखो
सुनो मुझे सुनो
मैं आकाश रेखा के
करीब खड़ा हूँ
अनझिप बस तुम्हें देखता

उसके कहन पर
ढूँढती रही मैं
समुद्र से मैदानों तक की
आकाश रेखा
जो मुझे कहीं नहीं मिली

मेरे पास जो आकाश था
वह आकाश रेखा से परे था