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खूनी बटवारा / संतोष श्रीवास्तव

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दिल दहल गया था
देखकर विभाजन के चित्र
जो किसी
चित्रकार की कूची ने
बेरंग रंगों की मिलावट से
तैयार किए थे
प्रदर्शनी के लिए

कितना भयानक था मंज़र
अपने ही लोगों पर
उठी तलवारें
जिस्म में उतारे जाते खंज़र
चीत्कार ,लहू की
उमड़ती नदी
लुटती अस्मत ,कराहती ममता
इस पार से उस पार तक
भयानक लम्हों का साक्षी वक़्त

कि सिक्का बदल गया था
शाहनी का
कि तमस ने
झपट लिए थे पिंजर
कैद करने को
सियासत के
दांव पर लगे मोहरे
और चल पड़ी थी
ट्रेन टू पाकिस्तान
ट्रेन टू हिंदुस्तान

सिहर उठी थी चित्रशाला
आंखों से बहे
आंसुओं के लिए
छोटा पड़ रहा था
वक्त का प्याला
रूह कांप रही थी
इंसानियत शर्मिंदा थी
दर्शकों की भीड़ के बावजूद
चित्रशाला में सन्नाटा था