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स्वीकार / संतोष श्रीवास्तव

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उत्तरायण की प्रतीक्षा करते
शरशैया पर मर्मांतक पीड़ा झेलते
भीष्म के अश्रुपूरित नेत्र
ढूँढ रहे हैं अम्बा को

अम्बा
जो भीष्म से बदला लेने
तीन जन्मों तक
अवतरित होती रही

स्वीकार करते हैं भीष्म
अपराध हुआ उनसे
वे अपने अपराधों को
विवशता,प्रणबद्धता के
कवच से ढकते रहे
वे तो संपूर्ण स्त्री जाति के
अपराधी हैं

रोक सकते थे
गांधारी का विवाह
अंधत्व की खाई में
ढकेले जाने के पलों को
जिसे फिर हठपूर्वक
गांधारी ने धारण किया

रोक सकते थे
द्रौपदी का चीर हरण
दुर्योधन का जंघा पर
बैठाने का दुस्साहस
रोक सकते थे
युधिष्ठिर का
मनुष्यता से गिरकर
स्त्री को दांव पर लगाना
और हार जाना

स्वीकार करते हैं भीष्म
पिता शांतनु की इच्छा के लिए
बेतुकी प्रतिज्ञा करना
अंबिका ,अंबालिका का
रोगी भ्राता से विवाह
वंश की रक्षा हेतु
गैर की शैया पर ढकेलना
नियोग से गर्भधारण करवाना

हाहाकार कर उठे भीष्म
कहाँ हो अम्बे दोषी हूँ तुम्हारा

स्वीकार करता हूँ अपनी हार
क्षमादान दो ,मुक्त करो मेरी आत्मा
स्वीकार करता हूँ अम्बे
हाँ,मुझे अपनी प्रतिज्ञा को
विवशता को, प्रणबद्धता को
तब तब ठुकराना था
जब जब स्त्री का अपमान हुआ
 जब जब वह छली गई
जब जब वह बेजान मोहरे-सी
दांव पर लगाई गई
हारी गई

मुक्त करो इस दोष से अम्बे
सदियों लोक में याद रहेगी
भीष्म प्रतिज्ञा
सदियों लोक में
यह भी तो याद रखा जाए
भीष्म के विवश नेत्रों को
खोला अम्बा ने
एक स्त्री ने