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समाप्ति का उत्सव / संतोष श्रीवास्तव
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रंगों का इंद्रजाल-सा
रचता है पतझड़
हरे पत्ते को पीला करता
कभी कभी तांबई
फिर भूरा
और इन्हीं शेड्स से
उभर आते हैं कितने रंग
भूरा होते ही
शाख पर नहीं टिकता
आहिस्ता जमींदोज हो
देखता है कातर
नग्न शाखों को
तेज हवाओं के भँवर में
गोल-गोल घूमता
नजरों से ओझल होने तक
देखता है ठूँठ पेड़
गहरी आह सहित
सिमट जाता है ख़ुद में
इन्हीं से शृंगार किया था
वासंती पलों में
इन्हीं के बीच
लुकाछिपी खेली थी
पुरवइया की बाहों में
तृप्त होता रहा था
वसंतोत्सव में
मायावी पतझड़ी हवाओं का
यह समाप्ति महोत्सव
ठहरा रहता है
बनैली आवाजों के सुर में
सुर मिलाता