Last modified on 29 मार्च 2025, at 18:39

अंतत: / सुकेश साहनी

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:39, 29 मार्च 2025 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उसने जला डाला
मेरा घास-फूस का घर
पर नहीं जला पाया
पैरों तले की धरती
और
सिर पर का आसमान
उसने लगवा दिए ताले
मेरे होठों पर
पर नहीं रोक सका मेरे
रोम- छिद्रों से बहता पसीना
झल्लाकर
उसने काट डाले मेरे
हाथ और पैर
फिर भी डोलता रहा आसन
मेरे दिल की धड़कनों से
अन्ततः
उसने झोंक दिया मुझको
बिजली की भट्ठी में;
पर नहीं छीन सका मुझसे
अंसख्य-असंख्य माँएँ