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बहती रही कतरा कतरा / संतोष श्रीवास्तव

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अब के सावन में यूं
टूट कर बरसा पानी
अब के मुलाकात
अधूरी-सी लगी

अब के पंछी भी
शाखों पर अनोखे से दिखे
कजरी मल्हार भी
ढोलक पर अचीन्ही-सी लगी

एक घटा घुमड़ कर
घिर आई मुझमें
देर तक फिर चली
तूफानी हवा
सांकलें खुलने लगीं
यादों की आहिस्ता

कुछ अधूरे से गीत
हवाओं में गूंजे
कांच के ख़्वाब पर
मुझको जो सँवारा उसने
तेज बारिश थी
बहती रही कतरा कतरा

अब के सावन भी करिश्माई लगा
एक कसक बो गया जाते-जाते