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तुम्हारे आने पर / संतोष श्रीवास्तव
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पंख खुजलाता
मुंडेर पर बैठा कौआ
शगुन धर गया
कि तुम आ रहे हो
आ रहे हो तो
कहाँ छुपा दूं
अपने टूटे मन को
बिखरे जीवन को
निष्कासित किए
सपनों को
रतजगों को
हर एक भावुक पलों में
आंसुओं की आवाजाही को
नहीं बताना चाहती मैं तुम्हें
तुम्हारे इंतज़ार को
सहेजे दहलीज़ भी तो
द्वार में सिमट चुकी है
कहाँ खड़ी होकर
पंथ निहारूं मैं तुम्हारा
चाहती हूँ
उस पहली मुलाकात को
फिर से जी लूं
तुम्हारे आने पर