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अनंत है जिजीविषा / संतोष श्रीवास्तव

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किस बात का संकल्प लूं ?
क्षीण होते हर पल की
विडंबना में
जबकि ज़रूरत है
पर्यावरण रक्षण की
जलवायु परिवर्तन को
रोकने की
गिरते सामाजिक मूल्यों को
संभालने की
क्या कुछ कर सकूंगी मैं ?

इन्हीं
संकल्पों को लेकर तो
गत वर्ष का
आगाज किया था
पर क्या निकला
अंजाम कुछ ?
अब फिर वही
जैसे का तैसा समय

लेकिन उम्मीद पर
दुनिया टिकी है
राह कितनी भी
कंटकाकीर्ण, पथरीली हो
थमना नहीं है
थमना जीवन का अंत है
किन्हीं अर्थों में पलायन भी

यह कैसे शब्द
घेर रहे हैं मुझे
अधर में लटकी
संभावनाओं के?
यह कैसा विस्तार है
मन का ?
अथाह समन्दरों को
अपने में समाए
डूब जाने की
हद पार नहीं करता।

कहीं कोई बिंदु
सहेज लेता है
संकल्पों को
और मैं
चल पड़ती हूँ
अंधकार में
राह टटोलती
अंधकार भी अनंत है
पर जिजीविषा भी तो
अनन्त है