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बादल की महफिल / संतोष श्रीवास्तव
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क्या ख़ूब सजी महफ़िल
बादल की बिजलियों की
भर भर के पेग तृप्त हैं
बरखा के मयकदे में
साकी बनी है बरखा
आलम है मयकशी का
सुर सात भी है बजते
झींगुर झंकार करते
मेंढक मल्हार गाते
पी पी की धुन लगी है
अलमस्त है पपीहा
बिजली की नौबतों से
गुंजार है क्षितिज भी
दरबार में है नर्तक
मोरों का दिल थिरकता
पंखों की दिलकशी पर
कुर्बान होता मंज़र
बरखा भी क्या है जिसमें
ख़ुश हैं धरा के बंदे
रिमझिम के घूंट पीकर
बहती है एक नदी-सी
मन के कगार भीतर