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कविता / कुंदन सिद्धार्थ

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कविता
जिंदा आदमी के सीने में सुलगती
उम्मीद की अंगीठी है

अंगीठी पर चढ़े पतीले में
मैंने रख धरे हैं
दुनिया भर के दुख, उदासी और चिंताएँ
वाष्पीभूत होने के लिए

प्रेम के धातु से
बनवाया है यह पतीला
दरअसल है नहीं कोई दूसरा धातु
किसी काम का

एक सुंदर दुनिया की उम्मीद में
सुलगते सीने में भरोसे की आग जलाये
लिखता हूँ कविताएँ
क्योंकि मैं ज़िंदा आदमी हूँ

जिंदा आदमी
कविता न लिखे
मर जायेगा