मैं इक चिरई ललमुनिया / आकृति विज्ञा 'अर्पण'

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पेड़ अघोरी तू बरगद का मैं इक चिरई ललमुनिया
गीत बसे तेरी हर पाती डूब डूब के मैं सुनिया

हवा तुझे सहलाये जब जब
सिहरन मुझको होती है
कोरे नैन भीगते तेरे
ललमुनिया यह रोती है

तेरी अँखियों के दरपन में देखी है मैने दुनिया
पेड़ अघोरी तू बरगद का मैं इक चिरई ललमुनिया

जाने कौन ठौर का नाता
हम दोनों को एक किये
बिन स्वारथ बहती इक नदिया
दोनो तीरे तीर्थ बसे

सब उपमायें मौन खड़ी हैं मुस्कइयाँ अधरां ठईया
पेड़ अघोरी तू बरगद का मैं इक चिरई ललमुनिया

मथुरा काशी से हम दोनो
प्रेमी औ वैरागी हैं
खोने पाने से गाफिल
दोनो ऐसे अनुरागी हैं

जाने कौन काज की खातिर क़िस्मत ने द्वय को चुनिया
पेड़ अघोरी तू बरगद का मैं इक चिरई ललमुनिया

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