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प्रहेलिकाएँ / सुभाष काक
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मैं, जो यह गीत गा रहा हूँ,
कल अपने शब्द भी पहचान न पाऊँगा
इस स्वर का जादू मिट गया होगा
निस्तब्ध अपने को टटोलते हुए
बिन भूत, भविष्य या कबः
यह योगी कहते हैं। मेरा अपना विश्वास है
कि मैं स्वर्ग या नरक का अधिकारी नहीं।
भविष्यवाणी न होः हर एक की कहानी
घुल जाती है अंगराग की भांति।
फलक पर केवल एक अक्षर है
और कुछ निमेष बंधे हुए
जिनसे अतीत की कसक होती है।
वैभव और प्रताप की अन्धी कौंध के आगे
मृत्यु का अनुभव कैसे होगा?
क्या स्फोटित विस्मृति पी पाऊँगा मैं
ताकि अनन्तकाल तक रहूँ; पर कभी न रहा हूं।