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एक तो ज़ीस्त के नशेबो-फ़राज़ / मधु 'मधुमन'
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एक तो ज़ीस्त के नशेबो-फ़राज़
उसपे ये दिल मेरा शिकस्ता साज़
और कब तक उठा सकेंगे हम
ज़िंदगी के ये आए दिन के नाज़
वक़्त बदला ज़रा-सा क्या मेरा
हर किसी के बदल गए अंदाज़
रंग तदबीर ख़ाक लाएगी
अपनी तक़दीर ही हो जब नासाज़
काश एहसास हो सके उसको
कोई कब से है गोश-बर-आवाज़
आसमाँ ख़ुद क़रीब आता है
जब परिंदा हो माइले-परवाज़
जब हो दिल का मुआमला ‘मधुमन‘
कौन सुनता है ज़ेह्न की आवाज़