भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन ढलते ही / शिव मोहन सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:22, 12 मई 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिव मोहन सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन ढलते ही रात घनी
गुमनाम यहाँ होती है।
आज कहाँ अभिराम किसी
की शाम यहाँ होती है।

ऐसे ही क्या कम होता है
अब अंतर दिन रातों का।
कितना अर्थ बड़ा होता है
छोटी-छोटी बातों का ।
अब पीपल की छाँव धूप
के नाम यहाँ होती है।

नयनों ने भी कब जाना है
दूर क्षितिज का अफसाना।
गगन धरा के मध्य अपरिमित
सबका अपना पैमाना ।
मान बिना तो मर्यादा
बेनाम यहाँ होती है।

कैसे भाव भरेंगे घट में
रुनझुन का भ्रम टूटा है।
कानन के कुसुमित कलरव को
कोलाहल ने लूटा है ।
लहरा कर पावन गंगा
बदनाम यहाँ होती है।