भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुनगुनाता हूँ मैं / शिव मोहन सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:23, 12 मई 2025 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिव मोहन सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब अधर पर सजल गीत पाता हूँ मैं,
हमसफर बन जिसे गुनगुनाता हूँ मैं।

छोड़ संसार को मुझे अपना लिया,
जीने मरने का संग सपना दिया,
उलझ जाता कभी सुलझ जाता हूँ मैं,
अब अधर पर सजल गीत पाता हूँ मैं,
हमसफर बन जिसे गुनगुनाता हूँ मैं।

धूप में छाँव-सी पाँव जलते नहीं,
प्रीत के गाँव-सी रूप छलते नहीं,
साथ उसका भँवर बीच पाता हूँ मैं,
अब अधर पर सजल गीत पाता हूँ मैं,
हमसफर बन जिसे गुनगुनाता हूँ मैं।

यूँ बदले हैं मौसम बदलते रहें,
फूल खिलकर कई रंग भरते रहें,
हर घड़ी हर समय में सुहाता हूँ मैं,
अब अधर पर सजल गीत पाता हूँ मैं,
हमसफर बन जिसे गुनगुनाता हूँ मैं।

हर तरफ़ छा रही, रूप की चाँदनी,
बीच आँगन लहरती कि तुलसी घनी,
ज़िन्दगी का सृजन पुष्प पाता हूँ मैं,
अब अधर पर सजल गीत पाता हूँ मैं,
हमसफर बन जिसे गुनगुनाता हूँ मैं।