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रेत का तर्कशास्त्र-1 / पूनम चौधरी

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रेत को नहीं चाहिए दिशा
वह नहीं बहती,
बस रास्ता देती है
त्याग कर मोह
अपनी जगह का,
जब कोई और गुज़रता है उसके ऊपर से।

उसकी कोई आवाज़ नहीं
क्योंकि वह हमेशा
दबने के योग्य मानी गई।

नदी का जल नहीं पूछता
नीचे कौन है,
बस अपनी त्वरा में
किसी की स्मृति तक मिटा देता है।

रेत,
जिसने शताब्दियों से
पत्थरों की छाया में रहकर
उन्हें मंदिरों में देखा बदलते
और स्वयं
पाँव की धूल मानी गई है।

जिसे एकत्र किया गया
कभी ईंटों में,
कभी शवयात्राओं के किनारों पर,
कभी खनन में
जहाँ उसकी पहचान सिर्फ मात्रा है,
अर्थ नहीं।

वह खिसकती है,
जब कोई स्थिर होना चाहता है।
उसे दोष दिया जाता है
धँसने का,
जैसे अस्थिर होना उसका अपराध हो।

वह मौन, सर्वत्र व्याप्त
घरों के कोनों में,
निर्माण स्थलों पर,
समय के नीचे
धीरे-धीरे जमती हुई।

कभी किसी ने
रेत से पूछा नहीं
कि क्या वह रहना चाहती थी वहाँ
जहाँ इमारत खड़ी की गईं।

हर बार
जब कोई पुल बना,
उसके नीचे वह बहती रही
बिना नाम के,
बिना दस्तावेज़ के।

रेत के पास इतिहास नहीं होता
वह संग्रहालयों में नहीं मिलती,
क्योंकि वह टिकती नहीं—
और इतिहास ठहरे हुओं का होता है।

रेत जानती है
कि पकड़े जाने से
वह और तेज़ी से फिसलती है।

उसने हर हथेली को छला नहीं,
बस उत्तर नहीं दिया
उस पकड़ की कोशिश पर
जिसमें प्रेम कम, अधिकार अधिक था।

रेत की पीड़ा यह नहीं
कि वह ठोस नहीं
बल्कि यह
कि हर कोई उसे ज़मीन मान लेता है
बिना देखे
कि वह खिसक रही है।

वह वेदना नहीं,
न ही अंधड़ है—
सिर्फ प्रतीक्षा है
किसी ऐसे स्पर्श की
जो उसे आकार में नहीं
अर्थ में समझ सके।

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