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काग़ज़ का हलफ़नामा / कुमार कृष्ण

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मैं काग़ज़ शब्दों का पुश्तैनी खेत
पतंग में उड़ती पेड़ की चीख हूँ
मैं हूँ राजा का फरमान
निश्छल गुनगुनाते जंगल का अपमान
मैं बच्चों के बस्तों में छुपी तस्वीर हूँ
बनिये की बही में बन्द किसी की तक़दीर हूँ
दोस्तो मैं अख़बार की शक्ल में हर रोज़
दरवाजों पर दस्तक देता कबीर हूँ

मैं हूँ खूबसूरत पेड़ की हत्या की परिणति
ब्रह्माण्ड का पूरा हिसाब-किताब
डिजिटल दुनिया की आँख में खटकता-
बाज हूँ मैं
चिट्ठियों में बंद सुख-दुःख का राज हूँ मैं
शब्द के सपनों का सब्जबाग हूँ मैं
मैं मात्र काग़ज़ नहीं-
एक श्वेतवर्णी विचार हूँ
शब्दों का सबसे बड़ा आधार हूँ
मैं राजा का प्रचार
रंक के संघर्ष का हथियार हूँ
मैं शब्दों का घर-बार परिवार हूँ
किताबों की दुनिया का चौकीदार हूँ
मैंने आज तक सम्भाल कर रखी-
गोर्की की माँ
धनपत राय को बना दिया प्रेमचंद
मैं न होता तो-
सलमान रुश्दी को कहाँ याद आती-
मिडनाइट्स चिल्ड्रन की
कैसे पहुँच पाता-
द सेटेनिक वर्सेज ईरान
मैंने ख़ुशवन्त सिंह के बस्ते में की-
कसौली की अनगिनत यात्राएँ
राहुल सांकृत्यायन के साथ-
पूरा हिमालय नापने में
थक गए मेरे नाज़ुक पाँव
मैं जेल का खेल भी अच्छी तरह जानता हूँ
सोचता हूँ-
जब नहीं रहूँगा इस धरती पर मैं
तब आराम करने
अपनी बात कहने
किसके पास जाएँगे शब्द
तब कौन पोंछेगा उनके आंसू
कौन सहलायेगा उनके कंधों की थकान
दोस्तो-
मैं शब्दों का तम्बू
उनका कच्चा मकान हूँ
सच कहूँ तो मैं-
सपनों के बीजों के दुकान हूँ।