भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ईश्वर हमारी भाषा नहीं समझते / जयप्रकाश मानस

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:10, 8 जुलाई 2025 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ईश्वर किस भाषा में बात करते हैं?
वही जो हवा में साँसों के साथ उलझती है
वही जो नदियों के किनारे पत्थरों से टकराती है

कोई कहता है - संस्कृत
कोई चिल्लाता है - तमिल
कोई फुसफुसाता है - उर्दू
लेकिन ईश्वर की बोली में
सिर्फ़ शोर है - और शोर में ख़ामोशी

भारत की गलियों में,
भाषाएँ कुर्सी की तरह लड़ी जाती हैं
हर ज़ुबान एक तख़्त - हर लिपि एक ताज
दिल्ली की कुर्सी पर
हिन्दी बैठी है
मगर कन्नड़, बंगाली, मराठी
पैर पटकते हैं
और असमिया चुपके से
अपनी डायरी में लिखती है - "मैं भी हूँ..."

ईश्वर हँसते हैं,
उनके पास कोई संसद नहीं
उनकी भाषा में
न कोई विधेयक, न कोई बहस

वो बोलते हैं पेड़ों से
जो बिना ज़ुबान के
हर मौसम में हरे रहते हैं।

वो बोलते हैं बच्चों से,
जो ‘मम्मी’ और ‘अम्मा’ में
कोई फ़र्क़ नहीं ढूँढते।

पर हम - हम तो अपनी ज़ुबान को
तलवार बना लेते हैं
हर शब्द एक क़िला
हर वाक्य एक बारूद
तेलुगु कहती है - मैं पुरानी,
गुजराती कहती है - मैं धनवानी,
पंजाबी चीख़ती है - मैं जंगी,
और भोजपुरी हँसती है -
"सब त का का बवाल बा ?"

ईश्वर की भाषा में
कोई कोटा नहीं
न आरक्षण, न सवर्ण, न दलित
वो बोलते हैं उस ज़ुबान में,
जो मंदिर की घंटी और
मस्जिद की अज़ान में एक है
लेकिन हम -
हम तो अपनी बोली को
वोट की तरह बाँट लेते हैं

कभी-कभी लगता है - ईश्वर चुप हैं
शायद वो हमारी भाषा नहीं समझते
या शायद
हम उनकी ख़ामोशी को
अपनी-अपनी ज़ुबान में
ग़लत पढ़ लेते हैं।
-0-