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हे बहन तेरे रणवास मैं / निहालचंद

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हे बहन तेरे रणवास मैं, या दासी कब से आई ॥टेक॥
तपे जैमिनी ऋषि जिनै, गई दीख उर्वशी मन मोहे ।
ध्यान डिग्या विश्वामित्र का, आई मेनका बिख बोए ।
दुर्वासा की कथा सुणी हो, नार विषय रस नै खोए ।
टोहे शृंगी ऋषि वनवास मैं, जिनै दूत्ती छलकै ल्याई ।1।
चित्रलेखा ल्याई ठाकै, कँवर महल मैं ल्या तार्या ।
जाण पटी थी बाणासुर नै, आण महल घेर्या सारा ।
कूद पड्या था लड़का रण मैं, सब जूझे कोन्या हार्या ।
बन्ध्या प्यारा अनिरुद्ध ब्रह्मपाश मैं, जिनै ऊखा गौरी ब्याही ।2।
उड़ते पक्षी नै पकड़ण का, इसके धोरै फन्दा हे ।
खिलरी धूप रूप का जादू, कौण सहारै बन्दा हे ।
ना क़ाबू मैं रह्या मेरा मन, बण्या चकौर परिन्दा हे ।
यो चन्दा खिला हे आकाश मैं, किसी शीतल कला-सवाई ।3।
खाण-पीवण की चीज निहालचन्द, ना देखे तै पेट भरता ।
खाले तै खुद्या मिटज्या, ना रूक्का मारै भूखा मरता ।
जिसकी सच्ची लगन लगै वो, जीवण-मरण तै ना डरता ।
जिनै करता फिरूँ था तलाश मैं, मिटै मर्ज दवाई या पाई ।4।